दूर क्षितिज की पहूँच हूं मैं,
सागर की गहराई मैं,
भर कर सपने अपनी आँखों मैं,
अपने परों की उड़ान हूँ मैं।
हवाओं की आज़ादी सी
खुशबु महकी महकी मैं,
मैं मुस्कान हर चेहरे की
रौशनी का आभास भी मैं,
कभी ठिठक कर रूक जाती हूँ,
कभी झुक कर उठ जाती हूँ,
अपने दायरे खुद बनाती,
विशाल अंतरिक्ष सी हूँ मैं।
साथ चलोगे तो कदम हूँ मैं,
जो छूट गई तो राह नयी,
मिठास गुलाब की हूँ मैं ही,
नीम सी औषध भी मैं।
मैं कल थी,
मैं हूँ आज,
आने वाला भविष्य भी मैं,
हर जीवन की कोख हूँ मैं
जीवन का आधार भी मैं।
मैं दूर्गा, मैं ही काली,
जीवन दायनी पृथ्वी भी मैं,
मैं नारी हूँ,
मैं प्रबल हूँ
नव जीवन सी कोमल भी मैं।